शीर्षक:-
हम किस समाज में जी रहे हैं..!!
★★★
मैं ही मैं हूँ, मैं कह सकता हूँ,
मैं ही मैं हूँ, मैं रह सकता हूँ,
हम किस समाज में जी रहे है,
यह हमारी सोच है,
होगा क्या? ना चाहे भला!
होगा क्या? ना मांगे भला!
हर जी के जंजालों से दूर,
भागते हम ही हम रोज़ है,
हम किस समाज में जी रहे है,
यह हमारी सोच है,
तरुण उत्पत्ति, तरुण आलेख है,
मन से मन की संवेदनाओं में,
मन से मन की पराकाष्ठाओं में,
और मन से जुड़ी तपस्या में जीते हम रोज़ है,
हम किस समाज में जी रहे है,
यह हमारी सोच है,
ना हम कभी शून्य रहे,
ना हम कभी शून्य होंगे,
यह जो भी है, यह जैसा भी है,
हाँ हम कह सकते है यह भी,
यह हमारी छिटपुट सी उलझनों की फौज है,
हम जिस समाज में जी रहे है,
यह हमारी सोच है,
सबकी अपनी विचार धाराएं,
सबकी अपनी ही खरोंच है,
हम जिस समाज में जी रहे है,
यह हमारी प्रथाओं की खोज है,
यह हमारी प्रथाओं की खोज है,
★★★
©
रचनाकार:- वरुण राठौड़ जी✍
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